इस जीवन में मैंने दुख ही दुख क्यों पाया है?
![]() |
![]() | |||
![]() | |||
![]() | ![]() | दुख ही दुख अगर पाया है तो बड़ी मेहनत की होगी पाने के लिए, बड़ा श्रम किया होगा, बड़ी साधना की होगी, तपश्र्चर्या की होगी! अगर दुख ही दुख पाया है तो बड़ी कुशलता अर्जित की होगी! दुख कुछ ऐसे नहीं मिलता, मुफ्त नहीं मिलता। दुख के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। आनंद तो यूं ही मिलता है; मुफ्त मिलता है; क्योंकि आनंद स्वभाव है। दुख अर्जित करना पड़ता है। और दुख अर्जित करने का पहला नियम क्या है? सुख मांगो और दुख मिलेगा। सफलता मांगो,विफलता मिलेगी। सम्मान मांगो, अपमान मिलेगा। तुम जो मांगोगे उससे विपरीत मिलेगा। तुम जो चाहोगे उससे विपरीत घटित होगा। क्योंकि यह संसार तुम्हारी चाह के अनुसार नहीं चलता। यह चलता है उस परमात्मा की मर्जी से। अपनी मर्जी को हटाओ! अपने को हटाओ! उसकी मर्जी पूरी होने दो। फिर दुख भी अगर हो तो दुख मालूम नहीं होगा। जिसने सब कुछ उस पर छोड़ दिया, अगर दुख भी हो तो वह समझेगा कि जरूर उसके इरादे नेक होंगे। उसके इरादे बद तो हो ही नहीं सकते। जरूर इसके पीछे भी कोई राज होगा। अगर वह कांटा चुभाता है तो जगाने के लिए चुभाता होगा। और अगर रास्तों पर पत्थर डाल रखे हैं उसने तो सीढ़ियां बनाने के लिए डाल रखे होंगे। और अगर मुझे बेचैनी देता है, परेशानी देता है, तो जरूर मेरे भीतर कोई सोई हुई अभीप्सा को प्रज्वलित कर रहा होगा; मेरे भीतर कोई आग जलाने की चेष्टा कर रहा होगा। जिसने सब परमात्मा पर छोड़ा, उसके लिए दुख भी सुख हो जाते हैं। और जिसने सब अपने हाथ में रखा, उसके लिए सुख भी दुख हो जाते हैं। जिसे तुम जीवन समझ रहे हो, वह जीवन नहीं है, टुकड़े-टुकड़े मौत है। जन्म के बाद तुमने मरने के सिवाय और किया ही क्या है? रोज-रोज मर रहे हो। और जिम्मेवार कौन है? अस्तित्व ने जीवन दिया है, मृत्यु हमारा आविष्कार है। अस्तित्व ने आनंद दिया है, दुख हमारी खोज है। प्रत्येक बच्चा आनंद लेकर पैदा होता है; और बहुत कम बूढ़े हैं जो आनंद लेकर विदा होते हैं। जो विदा होते हैं उन्हीं को हम बुद्ध कहते हैं। सभी यहां आनंद लेकर जन्मते हैं; आश्र्चर्यविमुग्ध आंखें लेकर जन्मते हैं; आह्लाद से भरा हुआ हृदय लेकर जन्मते हैं। हर बच्चे की आंख में झांक कर देखो, नहीं दीखती तुम्हें निर्मल गहराई? और हर बच्चे के चेहरे पर देखो, नहीं दीखता तुम्हें आनंद का आलोक?और फिर क्या हो जाता है? क्या हो जाता है? फूल की तरह जो जन्मते हैं, वे कांटे क्यों हो जाते हैं? जरूर कहीं हमारे जीवन की पूरी शिक्षण की व्यवस्था भ्रांत है। हमारा पूरा संस्कार गलत है। हमारा पूरा समाज रुग्ण है। हमें गलत सिखाया जा रहा है। हमें सुख पाने के लिए दौड़ सिखाई जा रही है। दौड़ो! ज्यादा धन होगा तो ज्यादा सुख होगा। ज्यादा बड़ा पद होगा तो ज्यादा सुख होगा। गलत हैं ये बातें। न धन से सुख होता है, न पद से सुख होता है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धन छोड़ दो या पद छोड़ दो। मैं इतना ही कह रहा हूं, इनसे सुख का कोई नाता नहीं। सुख तो होता है भीतर डुबकी मारने से। हां, अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में धन हो तो धन भी सुख देता है। अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में दुख हो तो दुख भी सुख बन जाता है। जिसने भीतर डुबकी मारी, उसके हाथ में जादू आ गया, जादू की छड़ी आ गई। वह भीड़ में रहे, तो अकेला। वह शोरगुल में रहे, तो संगीत में। वह जल में चलता है, लेकिन जल में उसके पैर नहीं भीगते। यह मैं नहीं कह सकता कि ये दुख अगर मिल रहे हैं तो पिछले जन्मों के हैं। पिछले जन्मों के दुख पिछले जन्मों में मिल गए होंगे। परमात्मा उधारी में भरोसा नहीं करता। अभी आग में हाथ डालोगे,अभी जलेगा, अगले जन्म में नहीं। और अभी किसी को दुख दोगे तो अभी दुख पाओगे, अगले जन्म में नहीं। यह अगले जन्म की तरकीब बड़ी चालबाज ईजाद है, बड़ा षड्यंत्र है, बड़ा धोखा है। अगर अभी प्रेम करोगे तो अभी सुख बरसेगा और अभी क्रोध करोगे तो अभी दुख बरसेगा। सच तो यह है, क्रोध करने के पहले ही आदमी क्रोध से भस्मीभूत हो जाता है। दूसरे को जलाओ, उसके पहले खुद जलना पड़ता है। दूसरे को दुख दो, उसके पहले खुद को दुख देना पड़ता है। ये पिछले जन्मों के दुख नहीं हैं। अभी जो कर रहे हो, उसी का परिणाम है। पहले तो मेरी बात सुन कर चोट लगेगी, क्योंकि सांत्वना नहीं मिलेगी। लेकिन अगर मेरी बात समझे तो छुटकारे का उपाय भी है। तो खुशी भी होगी। अगर इसी जन्म की बात है तो कुछ किया जा सकता है। यही मैं कह रहा हूं कि अभी कुछ किया जा सकता है। सुख छोड़ो! सुख की आकांक्षा छोड़ो! सुख की आकांक्षा का अर्थ है-बाहर से कुछ मिलेगा, तो सुख। बाहर से कभी सुख नहीं मिलता। सुख की सारी आकांक्षा को ध्यान की आकांक्षा में रूपांतरित करो। सुख नहीं चाहिए, आनंद चाहिए। और आनंद भीतर है। तो भीतर जितना समय मिल जाए, उतना भीतर डुबकी मारो। जब मिल जाए, दिन-रात, काम-धाम से बच कर, जब सुविधा मिल जाए, पति दफ्तर चले जाएं, बच्चे स्कूल चले जाएं, तो घड़ी दो घड़ी के लिए द्वार-दरवाजे बंद करके-घर के ही नहीं, इंद्रियों के भी द्वार-दरवाजे बंद करके-भीतर डूब जाओ। और धीरे-धीरे सुख के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे-महासुख के! और वे ऐसे फूल हैं जो खिलते हैं तो फिर मुर्झाते नहीं हैं। सौजन्य से - ओशो न्यूज लेटर |
प्रेम स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं !
"चूंकि मैं अपनी स्वतंत्रता चाहता हूं, अपनी प्रेयसी को हर संभव स्वतंत्रता देता हूं। लेकिन मैं पाता हूं कि पहले उसका ध्यान रखने का नतीजा यह होता है कि अंततः मैं स्वयं को ही चोट पहुंचाता हूं।'
अपनी प्रेयसी को स्वतंत्रता देने का तुम्हारा विचार ही गलत है। अपनी प्रेयसी को स्वतंत्रता देने वाले तुम कौन होते हो? तुम प्रेम कर सकते हो, और तुम्हारे प्रेम में स्वतंत्रता निहित है। यह ऐसी चीज नहीं है जो किसी को दी जा सके। यदि इसे दिया जाता है तो वही समस्याएं आएंगी जिसका तुम सामना करते हो।
सबसे पहले तुम कुछ गलत करते हो। वास्तव में तुम स्वतंत्रता देना नहीं चाहते हो; तुम चाहोगे कि कोई ऐसी परिस्थिति उत्पन्न न होजिसमें तुम्हें स्वतंत्रता देनी पड़े। लेकिन तुमने कई बार मुझे यह कहते हुए सुना होगा कि प्रेम स्वतंत्रता देता है, इसलिए बिना सचेत हुए स्वतंत्रता देने के लिए स्वयं पर दबाव डालते हो; क्योंकि अन्यथा तुम्हारा प्रेम, प्रेम नहीं रह जाता।
तुम एक कठिन समस्या में घिरे हो: यदि तुम स्वतंत्रता नहीं देते हो तो तुम अपने प्रेम पर संदेह करने लगते हो; यदि तुम स्वतंत्रता देते हो, जो कि तुम दे नहीं सकते...अहंकार बहुत ही ईर्ष्यालु होता है। इससे हजारों प्रश्न खड़े होंगे। "क्या तुम अपनी प्रेमिका के लिए काफी नहीं हो कि वह किसी और का साथ पाने के लिए तुमसे स्वतंत्रता चाहती है? इससे चोट पहुंचती है और तुम सोचने लगते हो कि तुम अपनेको किसी से कम महत्व देते हो।'
उसे स्वतंत्रता देकर तुमने किसी अन्य को पहले रखा और स्वयं को बाद में। यह अहम् के विरुद्ध है और इससे कोई लाभ भी नहीं मिलने वाला है क्योंकि तुमने जो स्वतंत्रता दी है उसके लिए तुम बदला लोगे। तुम चाहोगे कि ऐसी ही स्वतंत्रता तुम्हें मिले, चाहे तुम्हें उसकी आवश्यकता है या नहीं, बात यह नहीं है-ऐसा केवल यह सिद्ध करने के लिए किया जाता है कि तुम ठगे तो नहीं जा रहे हो।
दूसरी बात, यदि तुम्हारी प्रेमिका किसी अन्य के साथ रही है तो तुम अपनी प्रेमिका के साथ रहने पर अजीब सा महसूस करोगे। यह तुम्हारे और उसके बीच बाधा बनकर खड़ा हो जाएगा। उसने किसी और को चुन लिया है और तुम्हारा त्याग कर दिया है; उसने तुम्हारा अपमान किया है।
और तुमने उसे इतना कुछ दिया है, तुम इतने उदार रहे हो, तुमने उसे स्वतंत्रता दी है। चूंकि तुम आहत महसूस कर रहे हो इसलिए तुम किसी न किसी रूप में उसे चोट पहुंचाओगे।
लेकिन यह सब कुछ गलतफहमी के कारण पैदा होता है। मैंने यह नहीं कहा है कि तुम प्रेम करते हो तो तुम्हें स्वतंत्रता देनी होगी। नहीं,मैंने कहा है कि प्रेम स्वतंत्रता है। यह देने का प्रश्न नहीं है। यदि तुम्हें यह देना पड़ता है तो इसे न देना बेहतर है। जो जैसा है उसे वैसे रहने दो। बिना कारण जटिलता क्यों उत्पन्न की जाए? पहले से ही बहुत समस्याएं हैं।
यदि तुम्हारे प्रेम में वह स्तर आ गया है कि स्वतंत्रता उसका अंग बन गया है, तब तुम्हारी प्रेमिका को अनुमति लेने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। वास्तव में, यदि मैं तुम्हारी जगह होता और मेरी प्रेमिका यदि अनुमति मांगती तो मुझे चोट पहुंचती। इसका अर्थ यह कि उसे मेरे प्रेम पर भरोसा नहीं। मेरा प्रेम स्वतंत्रता है। मैंने उससे प्रेम किया है इसका अर्थ यह नहीं है कि मुझे सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद कर देना चाहिए ताकि वह किसी के साथ हंस न सके, किसी के साथ नृत्य न कर सके, किसी से प्रेम न कर सके-क्योंकि हम कौन होते हैं?
यही मूल प्रश्न है जिसे सभी को करना चाहिए: हम कौन हैं? हम सभी अजनबी हैं, और इस आधार पर क्या हम इतने दबंग हो सकते हैं कि हम कह सकते हैं, "मैं तुम्हें स्वतंत्रता दूंगा', अथवा "मैं तुम्हें स्वतंत्रता नहीं दूंगा', "यदि तुम मुझसे प्रेम करती हो तो किसी अन्य से प्रेम नहीं कर सकती?' ये सभी मूर्खतापूर्ण मान्यताएं हैं लेकिन ये सभी मानव पर शुरू से हावी रहे हैं। और हम अभी भी असभ्य हैं; हम अभी भी नहीं जानते कि प्रेम क्या होता है।
यदि मैं किसी से प्रेम करता हूं तो मैं उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञ होता हूं कि उसने मुझे प्रेम करने दिया, उसने मेरे प्रेम को अस्वीकार नहीं किया। यह पर्याप्त है। मैं उसके लिए एक कैदखाना नहीं बन जाता। उसने मुझसे प्रेम किया और इसके बदले मैं उसके चारों ओर एक कैदखाना बना रहा हूं? मैंने उससे प्रेम किया, और इसके बदले वह मेरे चारों ओर एक कैदखाना बना रही है? हम एक दूसरे को अच्छा पुरस्कार दे रहें हैं!
यदि मैं किसी से प्रेम करता हूं तो मैं उसका कृतज्ञ होता हूं और उसकी स्वतंत्रता बनी रहती है। मैंने उसे स्वतंत्रता दी नहीं है। यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और मेरा प्रेम उससे उसका यह अधिकार नहीं छीन सकता। कैसे प्रेम किसी व्यक्ति से उसकी स्वतंत्रता छीन सकता है, खासकर उस व्यक्ति से जिससे तुम प्रेम करते हो? तुम यह भी नहीं कह सकते कि "मैं उसे स्वतंत्रता देता हूं।' सबसे पहले तुम कौनहोते हो? केवल एक अजनवी। तुम दोनों सड़क पर मिले हो, संयोग से, और वह महान है कि उसने तुम्हारे प्रेम को स्वीकार किया। उसके प्रति कृतज्ञ रहो और जिस तरह से जीना चाहती है उसे उस तरह से जीने दो, और तुम जिस तरह से जीना चाहते हो उस तरह से जीवनजीओ। तुम्हारी जीवन-शैली में कोई हस्तक्षेप नहीं करे। इसे ही स्वतंत्रता कहते हैं। तब प्रेम तुम्हें कम तनावपूर्ण, कम चिंताग्रस्त होने, कम क्रुद्ध और अधिक प्रेसन्न होने में सहायक होगा।
दुनिया में ठीक इसका उलटा हो रहा है। प्रेम काफी दुख-दर्द देता है और ऐसे भी लोग हैं जो अंततः निर्णय ले लेते हैं कि किसी से प्रेम न करना बेहतर है। वे अपने हृदय के द्वार को बंद कर देते हैं क्योंकि यह केवल नरक रह जाता और कुछ भी नहीं।
लेकिन प्रेम के लिए द्वार बंद करने का अर्थ है वास्तविकता के लिए द्वार बंद करना, अस्तित्व के लिए द्वार बंद करना; इसलिए मैं इसकासमर्थन नहीं करूंगा। मैं कहूंगा कि प्रेम के संपूर्ण स्वरूप को बदल दो! तुमने प्रेम को बड़ी विचित्र परिस्थिति में धकेल दिया-इस परिस्थिति को बदलो।
प्रेम को अपनी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बनने दो। प्रेम को अपने हृदय और साहस का पोषण बनने दो ताकि तुम्हारा हृदय किसी व्यक्ति के प्रति ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के प्रति खुल सके।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें